आइये आज हम कुल्लू शैली के बारे मे विस्तारपूर्वक जानेंगे जो पहाड़ी शैली के उपशैली है
पहाड़ी चित्रशैली मे कुल्लू की अपनी अलग उपलब्धि है । इस चित्र कलम को सर्वप्रथम प्रकाश मे लाने का श्रेय ”जे . सी . फ्रेंच को है सर्वप्रथम अपनी पुस्तक ‘हिमालयन आर्ट मे 1931 ई मे इसका उल्लेख किया ।
श्री जगदीश मित्तल व प्रसिद्ध कला समीक्षक कार्ल खंडालवाला ने अपने प्रयत्नो से इसका विशद परिचय कला रसिको तक पहुंचाया है ।
कुल्लू की स्थिति
कुल्लू राज्य के पूर्व मे तिब्बत, पश्चिम मे चम्बा , कांगड़ा व मण्डी ,उत्तर मे लद्दाख ओर दक्षिण मे बुशहर राज्य व सतलज नदी है । इस राज्य का प्राचीन नाम कुल्ट था । इस शैली का आरम्भ 1750 के आस पास माना जाता है राजा जगत सिंह (1637-72) ई0 ने अपने लिए सुल्तानपुर नई राजधानी 1660 ई0 मे बसाई तथा रघुनाथ जी का प्रसिद्ध मंदिर भी बनवाया । 1750 तक यह कला उपेक्षित सी रही । राजा जगत सिंह के पश्चात राजा ”राजसिंह ” (1731-42 ई0 ) तथा ‘राजा टेढ़ी सिंह ‘(1742-1767 ई0 ) के समय ये शैली पैर तो नहीं जमा सकी ,पर सुचारु रूप से चलती रही ।
कुल्लू का प्राचीन नाम ‘कुलाटा’ या ‘कुल्ट’ था।
कुल्लू कला का इतिहास
महाराज मानसिंह (1688-1718) शासन काल मे चित्रकार बसोहली से आकर बसने लगे थे इस शैली का प्रारम्भिक चित्र ”राधा व कृष्ण कुंज मे ” है
राजा मानसिंह (1688-1719) ई0 के समय मे इस कला के बीज ठीक जम गए थे । राजा जगत सिंह इनहोने प्रसिद्ध रघुनाथ मंदिर का निर्माण कराया तथा सुल्तानपुर को अपनी राजधानी बनाया था । राजा टेढ़ी सिंह (1742-67ई0) के समय मे इस क्षेत्र मे काँगड़ी प्रभाव आया । टेढ़ी सिंह के पश्चात उनका पुत्र प्रीतम सिंह (1767-1806ई0) गद्दी पर बैठा । राजा प्रीतम सिंह ही कुल्लू कला के उन्नायक व प्रेरणा श्रोत थे । राजा प्रीतम सिंह ने अनेक सचित्र ग्रंथ चित्र बनवाए । राजा प्रीतम सिंह के (1767-1806 ) कुल्लू कलम कि सर्वाधिक उन्नति इन्ही के काल मे हुई थी।
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शीशमहल के एक बरामदे की दीवार पर ‘त्रिपुर -सुंदरी देवी ‘ का चित्र सजनु के हाथ का बना लगता है । ‘देवी ‘ के चारो ओर बने 18 आयतों मे देवी से संबन्धित विषय वस्तु को उकेरा गया है । प्रीतम सिंह के पश्चात उनके पुत्र राजा विक्रम सिंह (1806- 10ई0 ) ने इस परंपरा को बनाए रखा । मुख्य रूप से राम -सीता विवाह ,रुक्मणी हरण , नायिका भेद तथा युवराज विक्रम सिंह की मुखाकृति उल्लेखनीय है । भगवान चितेरे ने ही विक्रम सिंह के समय मे अनेक चित्र बनाए है तथा साथ ही साथ मधुमालती व भागवत -पुराण विषयक चित्र मालाए तैयार की थी । चमकीले रंग ,लंबी आकृतिया , माथा पीछे को जाता हुआ व सादा संयोजन इसके चित्रो की विशेषताए है । पुरुष वेषभूषा मे चौबन्डी जामा ,कसा पायजामा , पटका व कूल्हेदार साफा तथा स्त्री वेसभूषा मे लहंगा -चोली व ओढनी का अधिक प्रचलन रहा है । राजा विक्रम सिंह के बाद चित्रो का योवन ढलकने लगा तथा बाद के चित्रो पर सिख प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है । देवी वाले बरामदे मे बाई ओर कुछ चित्र ”राय दलीप सिंह ”(1869-92) ई0 के समय के है ।
‘राय मेघ सिंह ‘ (1892-1921 ई0 ) ने 1910 ई मे अपने नवनिर्मित महल की भित्तियो पर काँगड़ी धून के कुचचितर बनवाए थे इन भित्ति चित्रो की विशेषता इनके चटक रंग तथा स्थानीय वृक्षो ,जैसे देवदार ,चीड़ इत्यादि का अंकन था । राय मेघ सिंह के पुत्र ‘राय भगवंत सिंह’ ने विदेशी यात्री व कलारसिक ‘श्री जे . सी . फ्रेंच को यंहा के चित्र दिखाये थे जिसके फलस्वरूप कुल्लू कलम जनता के समक्ष उद्घाटित हो सकी । ललित कला अकादमी नई दिल्ली ने इस महल के भित्ति चित्रो की प्रतिलिपिया तैयार कारवाई थी ।
कुल्लू शैली की विषय वस्तु
कुल्लू शैली मे लघु चित्र तथा भित्ति चित्र बने । कुल्लू के चित्रो के विषय सामान्यता अन्य पहाड़ी राज्यो के समान धार्मिक ही है । इनके विषय रामायण , भागवत , दानलीला ,नायिका -भेद , राग -रागिनी आदि थे ।
कुल्लू चित्र शैली की विशेषताए
- कुल चित्रो मे संपुंजन सरल है । यंहा आकृतिओ की भीड़ -भाड़ नहीं है ।
- आकृतियो मे सूडोलता व प्रमाण का ध्यान नहीं रखा गया है ।
- आलेखन के तल प्राय सपाट व मंद्भूत रंगो मे बने है ।
- वास्तु का प्राय अभाव है ।
- रेखाओ मे लोककला की रुक्षता है ।
- पशु व पेड़ पोधे का रेखांकन लोककला से प्रभावित है ।
- यंहा के चित्रकारों ने राधा -कृष्ण ,नायिका भेद ,मात् -शक्तियों , रामायण ,महाभारत ,भागवत ,युद्ध व शिकार के दृश्य पतंग व कबूतर उड़ाती स्त्रियो जैसे विषयो को चित्रित किया है ।
यथार्थ मे कुल्लू चित्रो के प्राण यंहा की लोककला परमपरा रही है । जिसके आधार पर यह शैली अपना अस्तित्व बना सकी ।
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