आइये हम कांगड़ा शैली के बारे मे जानेगे जो पहाड़ी शैली की उप शैली है
कांगड़ा शैली 18 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध मे कांगड़ा घाटी मे पनपी ओर सम्पूर्ण पहाड़ी के इतिहास मे एक सर्वश्रेष्ठ शैली रही है । कटोच राजवंश के महाराजा संसार चंद के संरक्षण ने इसे योवन के द्वार पर पहुंचा दिया । कांगड़ा का राजवंश कटोच वंश को विश्व का सबसे प्राचीन राजवंश माना जाता है । कटोच वंश की उत्पत्ति की विषय मे ब्राह्मण पुराण मे कहा गया है की देवताओ द्वारा दैत्यो का विनाश न होने पर देवताओ ने एक शक्तिशाली मानव की रचना की ।
इस शांत घाटी मे कभी -कभी आक्रमणकारियो की कुछ हलचले हो जाती थी । इसका कारण वंहा का किला था । महमूद गजनवी इसके सौंदर्य व समपदा को लूटकर गजनी ले गया था । मुग़ल , सीख , व गोरखे भी इसका पूर्व योवन न लोटा सके ।
कांगड़ा घाटी की आरंभिक इतिहास के बारे मे प्रामाणिक जानकारी का अभाव मे कहा जाता है । यह शैली अनेक सामन्त जागीरदारों मे बंटी हुई थी ।
कनिघम के अनुसार पश्चिमी हिमालय शैली को तीन प्राचीन राज्यो मे विभक्त किया है तथा इसे त्रिगर्त कहा जाता है । इसके अंतर्गत कांगड़ा गुलेर ,चम्बा आदि आते है
कांगड़ा कला का ऐतिहासिक कलावृत एव कला प्रणेता महाराजा संसार चंद
महाराजा संसार चंद ही कांगड़ा कला के एकमात्र प्रबल पोषक व उन्नायक रहे । इनका जन्म कांगड़ा जिले की पालमपुर तहसील के समीप एक गाँव मे हुआ था । महाराजा संसार चंद के दादा घमण्ड चंद का समय (1751-74) ई0 से आरंभ होता है जो 1751 ई0 मे गद्दी पर बैठा ।
इन्होने कटोच वंश की अस्त हुई समृद्धि को एकत्रित करके पुनः सर्जित किया ओर तीरा सुजानपुर नगर बसाया था । इनके काल मे चित्रो का निर्माण हुआ वो सुंदर नहीं थे इनके समय 4 चित्र बने थे । इनके बाद तेगचन्द्र (1774-1775) ये एक साल ही राज कर पाये उनकी मृत्यु हो गई थी । इनके बाद उनके बड़े पुत्र संसारचंद 1775 ई0 मे कांगड़ा का किला भी संसार चंद के हाथो मे आ गया ।
संसारचंद (1775-1823) ये कम उम्र (10 वर्ष ) मे शासक बने । इन्होने छोटी -छोटी रियासतो को जीतकर अपने अधीन कर लिया था । संसार चंद का 1804 ई0 मे रणजीत सिंह से हारने के बाद पंजाब के मैदानो पर अधिकार करने का सपना टूट गया था । तीन साल तक यह अराजकता का चक्र चलता रहा । वास्तव मे कांगड़ा इतिहास मे 1786 से 1805 ई0 तक का समय स्व्रर्णिम रहा । 1806 मे पहाड़ी कला मे गोरखाओ के आक्रमण सर्वाधिक बढ़ गए थे । अनेकों मंदिरो व कलाकृतियों को तोड़ा गया गोरखाओ ने कांगड़ा शैली पर 4 वर्ष तक अधिकार रखा ।
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”तारीख ए पंजाब ” के लेखक मोहिनूद्दीन ने कहा है की चित्रकार का जूट कांगड़ा आता ओर वंहा समान प्राप्त करके अपने कलाकृतियों का निर्माण करके लुफ्त उठाते थे ।
राजा संसारचंद को उस जमाने मे लोग हातिम कहकर पुकारते थे । तथा उदारता के कारण रुस्तम कहकर पुकारा जाता था ।
कांगड़ा शैली का स्वर्णकाल 1786 से 1805 तक का समय माना जाता ।
राजा संसारचंद व मूर क्राफ्ट की भेंट आलमगीरपुर मे 1820 मे हुई थी । राजा संसारचंद को चित्रकला का बहुत शोक था ओर इसी से प्रेरित होकर इन्होने सिकंदर महान के चित्र का चित्राकन करवाया था ।
सुप्रसिद्ध चित्र राजा संसारचंद हुक्का पीते हुए (1805-1810)
संसारचंद वैष्णव धर्म का अनुयायी ओर कृष्ण भक्त थे ।
संसारचंद के प्रिय विषय –
केशवदास लिखित -रसिकप्रिय ,कविप्रिय ,नलदमयंती ।
जयदेव लिखित -गीत-गोविंद
बिहारी लिखित – बिहारी सतसई, भागवत पुराण
आनंद कुमार स्वामी ने कांगड़ा के प्रेम चित्रो की तुलना ”चीनी के लैंडस्केप से की ”है
सन 1824 ई0 मे नर्मदेश्वर नाम से एक मंदिर बनवाया । इसकी भित्तियो ओर छतों पर सुंदर चित्र देखने को मिलते है । महाराजा ने जिस होंसले से नरदौन की रौनक की बढ़ाया था उसके लिए एक कहावत प्रसिद्ध थी – ”आएगा नदौन -जाएगा कौन ”
लगभग बीस वर्ष तक स्वतंत्र रूप से महाराजा ने पहाड़ी रियासतो पर राज्य किया । 1820 ई0 के प्रसिद्ध अंग्रेज़ यात्री मूर क्राफ्ट ने अलमपुर मे महाराजा से भेंट की थी । वह लिखता है –” संसार चंद चित्रकारी का शौकीन था । बहुत से कलाकारो को उसने अपने यंहा रखा है । उसके पास चित्रो का बड़ा संग्रह है जिसमे अधिकतर चित्र कृष्ण ओर बलराम की पराक्रम लीला है । इन चित्रो मे अर्जुन के वीरतापूर्ण कार्य ओर महाभारत संबंधी विषय है । इसके पड़ोसी राजाओ तथा उनके पूर्वजो की मुखकृतियाँ भी है । इन्ही मे सिकंदर महान की मुखकृतियाँ थी ”। महाराजा संसार चंद के ह्रदय मे कला के प्रति स्वाभाविक अनुराग ओर कलाकारो के लिए हार्दिक निष्ठा थी ।
कांगड़ा शैली की विषय वस्तु
जिस समय कांगड़ा की चित्रकला का विकास हो रहा था । उसी समय वैष्णव धर्म की लोकप्रियता बढ़ रही थी । इस भक्ति धारा को रीतिकालीन कवियों ने प्रेम ओर श्रंगार की रस धारा से जोड़ दिया । अंत कांगड़ा के चित्रो मे रामायण ,भागवत ,गीत -गोविंद जैसे भक्तिपरक ग्रंथो के साथ नायिका भेद का चित्रण हुआ । बिहारी सतसई ,रागमला , बारहमासा , पद्मावत , नलदमयंती , सुदामचरित्र आदि विषयो के साथ -साथ देवी -देवताओ के चित्र भी बने है ।
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कांगड़ा शैली के प्रमुख केंद्र
- गुलेर
- तीरा सुजानपुर
- टिहरी
- नूरपुर
कांगड़ा शैली के प्रमुख चित्रकार
- खुशाला
- मानकु
- बसिया
- फत्तू
- नैनसुख
- सजनु
- घुमन
- कुशनलाल
- शिवराम
- भगतराम
- चुन्नीलाल
- बिहारी
- रामदयाल
संसारचंद के दरबार का प्रिय चित्रकार परखू यह गुलेर का निवासी था । इनके पिता का नाम घुमन था ।
कांगड़ा शैली की विशेषताए
1. मानवाकृतियाँ – कांगड़ा शैली मे नारी तथा पुरुषो की देह स्वस्थ है । पुरषो मे देह की तुलना मे चेहरा भारी अंकित किया गया है । नारियो की मुखाकृति अंडाकार ,छोटे उभरे उरोज , कमर पतली तथा उंगलिया लंबी -पतली चित्रित की गई है । आंखे व मुखाकृतियाँ लावण्य से परिपूर्ण है । अंग -भंगिमाए सजीव है ।
2. प्रष्ठभूमि – प्रष्ठभूमि मे प्राय पहाड़ो के दृश्यो का अंकन है । आवश्यकतानुसार भवनो का प्रयोग किया गया है ।
3. रंग योजना – मुगल शैली के सफल चित्रकारों ने कांगड़ा के चित्रो मे रेखा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया इन चित्रो के रंग कोमल है । किन्तु चटख है । रंगो मे विविधता है ।
4. वेषभूषा – स्त्रियो को लहंगा ,कुंचकी तथा रेशमी पार -दर्शक ओढनी पहने चित्रित किया गया है । पुरुषो का परिधान मुगलो से प्रभावित है । कलीदार पगड़ी ,चूड़ीदार पायजामा ,कंधो पर पटका तथा कमर पेच प्राय चित्रित है कृष्ण को धोती,पीताम्बर तथा मुकुट पहने चित्रित किया गया है । ग्वाल -बालो को जाघिया पहने , गोल टोपी लगाए तथा कंबल ओढ़े चित्रित किया गया है । आरंभिक चित्रो मे वस्त्र पारदर्शक थे ।
5. पशु -पक्षी – विभिन्न पशु -पक्षियो का चित्रण मानवीय भावनाओ को सहयोग करते हुए दिखाया गया है बगुला , मोर ,सारस ,हिरण ,तथा गायों का अंकन चित्र के भाव की वृद्धि करता है ।
6. प्रकृति – कांगड़ा के प्रकृतिक परिवेश को चित्रकार ने बखूबी उतारा है । गीत -गोविंद के चित्रो मे सघन वनस्पति एक छोर पर तथा दूसरी ओर एक टीले पर उदास बैठे कृष्ण के साथ सरो का वृक्ष प्रतिकात्मक है । चाँदनी रात के दृश्यो मे स्वाभाविक है ।
7. भावो की अभिव्यक्ति – कृष्ण भक्ति तथा रीतिकालीन श्रंगार -प्रधान कांगड़ा के चित्र भक्ति तथा प्रेमरस के सागर है । कांगड़ा के चित्र दर्शक के मन -प्राण को भाव विभोर कर देते है ।
8. कांगड़ा शैली मे महिलाओ के 8 परार बताए गए है ।
9. कांगड़ा शैली मे गिलहरी व नेवले तथा बकरी के बालो की तूलिका का प्रयोग होता था ।
10. कांगड़ा शैली के चित्रो मे भूरे सियालकोटी कागज पर चित्रित किया गया है ।
11. कांगड़ा के चित्रो मे मुगल चित्रो की तरह क्षितिज रेखा नीचे की ओर बनाई गई ।
12. कांगड़ा शैली के चित्र लघु आकार मे बने है ।
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