कला का अर्थ
कला शब्द का आज के समय के विभिन्न वर्गो मे प्रथक अर्थो मे प्रचलित है अर्थात कला का उद्गम मानव की सौन्दर्य भावना का परिचायक है कला शब्द का प्रयोग ललित कला हेतु किया जाता है श्री रवीन्द्रनाथ टैगोर के अनुसार कला मे मनुष्य अपने मन की अभिव्यक्ति करता है न की बाह्य रूप की ।
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” मनुष्य की रचना ,जो उसके जीवन मे आनंद प्रदान करती है , कला (आर्ट) कहलाती है । ”
भारतीय कला ‘दर्शन ‘ है ।शास्त्रो के अध्यन्न से पता चलता है की ‘कला ‘ शब्द का प्रयोग ‘ऋग्वेद ‘ मे हुआ – ”यथा कला , यथा शफ, मध , शृण स नियामती ।” कला शब्द का यथार्थवादी प्रयोग ‘भरतमुनी ‘ने अपने ‘नाट्यशास्त्र ‘ मे प्रथम शताब्दी मे किया –” न तज्ज्ञान न तच्छ्ल्पि न साविधा -न सा कला ।’‘ अर्थात ऐसा कोई ज्ञान नहीं , जिसमे कोई शिल्प नहीं , कोई विधा नहीं , जो कला न हो ।
मार्कण्डेय मुनि द्वारा रचित विष्णुधर्मोत्तर पुराण मे कलाओ मे चित्रकला को सर्वोच्च स्थान दिया गया है ।
भारत मे कला को शिल्प कहा जाता था । भारत मे कला को योग साधना माना जाता है ।
यूरोप मे कला को समार्था कहा जाता है यूनान मे कला को तेखने (टेक्निक ) कहा जाता है ।
आधुनिक समय मे शिल्प शब्द का प्रयोग उपयोगी कला के लिए , कला शब्द का प्रयोग ललित कला के लिए किया जाता है ।
कला शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद मे हुआ । इसके अतिरिक्त कला शब्द का प्रयोग सत्पथ ब्राह्मण ,सांख्यायन ब्राह्मण , आरण्यक तथा अथर्वेद मे भी मिलता है ।
कला संस्कृत भाषा का शब्द है । ‘कल ‘ धातु से कला की उत्पत्ति मानी जाती है जिसका अर्थ प्रसन्न करना है कुछ विद्वान इसकी उत्पत्ति ‘कड़ ‘ धातु से मानते है जिसका अर्थ प्रसन्न करना है । संस्कृत मे कला शब्द का प्रयोग अनेक रूपो मे किया गया है । इसका व्यवहारिक अर्थ है ‘किसी भी कार्य को पूर्ण कुशलता के साथ करना ‘। आर्ट शब्द का प्रयोग 13वीं शताब्दी के प्रथम चरण मे हुआ । आर्ट शब्द लैटिन भाषा के आर्स (ARS ) शब्द से बना है । इस शब्द का अर्थ क्राफ्ट है । जैसे स्वर्णकारी।
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कला के प्रकार
वास्तुकला या स्थापत्य कला –
मूर्तिकला –
चित्रकला –
मृदभांड कला –
मुद्राकला –
प्रस्तर कला –
धातुकला –
दंतकला –
मृतिका कला –
कला को मुख्य दो भागो मे बांटा गया है
1 उपयोगी कला 2 ललित कला
उपयोगी कला मानव समाज के घरेलू उपयोग मे आती है , जैसे आभूषण कला , काष्ट कला
ललित कला सौंदर्य प्रधान होती है , मानव के मश्तिष्क को आनंद प्रदान करने वाली होती है
भरतमुनी ने कला को ललित कला के रूप मे माना है तथा 8 रसो को बताया है ।
भरतमुनी ने कला के 2 प्रकार बताए है
1 मुख्य कला 2 गौड़ कला
पाणिनी ने अपनी पुस्तक अष्टाधायी मे (800 BC ) कला को दो भागो मे बांटा है
1 कारु काला (उपयोगी कला )
2 चारु कला (ललित कला )
हिगल ने भी कला को दो भागो मे बांटा है
1 दृश्य कला (चित्र , वास्तुकला मूर्तिकला )
2 श्राव्य कला ( संगीत सुनने वाली ,काव्य )
हिगल के अनुसार उच्च पद पर काव्य को रखा है तथा निम्न पद पर वास्तुकला को रखा है । परंतु हिगल ने कलाओ को तीन न मानकर पाँच माना है ।
1 चित्रकला –
इस अत्यंत उत्कृष्ट एव सुक्ष्म्कला मे रूप ,रंग आकार तथा लंबाई एव चौड़ाई होती है । यह मनोभावों को अत्यधिक स्पष्ट करने मे समर्थ होती है ।
2 मूर्तिकला –
इस कला के अंतर्गत किसी वस्तु का रूप , रंग एव आकार आदि निर्मित किया जाता है यह कला उत्कृष्ट मनोभावों को व्यक्त करने मे सक्षम होती है ।
संगीत कला –
‘नाद ‘ तथा ‘स्वर ‘ पर आधारित इस कला के द्वारा व्यक्त भाव अत्यधिक सूक्ष्म ,स्पष्ट तथा हृदय ग्राही होते है ।
काव्यकाला –
शब्द एव अर्थ पर आधारित इस उत्कृष्ट कला मे ‘स्वर ‘ एव ‘ व्यंजन ‘ दोनों ही प्रयुक्त होते है । इसका प्रभाव भी
चिरस्थाई होता है ।
स्थापत्य कला या वास्तुकला –
इस काला के अंतर्गत भवन ,मंदिर ,मस्जिद ,चर्च ,-पुल तथा बांध आदि का निर्माण कार्य होता है ।
अरस्तू के दार्शनिक ने भी कला को दो भागो मे बांटा है
1 ललित कला 2 उदार कला
क्षेमेन्द्र की पुस्तक कला विलास है । इसमे
64 सुनारो की कला
64 जन उपयोगी कला
64 वेश्याओ की कला
100 सार कला
16 कायस्थों से संबन्धित कला
32 अर्थ ,धर्म, काम, मोक्ष
10 भेषज संबंधी कला
कामसूत्र , शुक्रनीति -जैन ग्रंथ , कला विलास , ललित विस्तार , नाट्यशास्त्र , मानसोल्लास ,विष्णुधमोत्तर पुराण , चित्रलक्षण इत्यादि सभी भारतीय ग्रंथो मे कला का वर्णन प्राप्त होता है । अधिकतर ग्रंथो मे कलाओ की संख्या 64 मानी गई है । प्रबंधकोश मे 72 कलाए , ललितविस्तर म 86 कलाए , कामसूत्र मे 6 4 कलाए , कादंबरी मे 64 कलाए है ।
प्रसिद्ध कश्मीरी पंडित क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथ कला विलास मे सबसे अधिक संख्या मे कलाओ का वर्णन किया है सबसे अधिक प्रामाणिक सूची कामसूत्र की है ।
कला की परिभाषा
कला मानव के मन की सहज अभिव्यक्ति है जब यही अभिव्यक्ति कल्पना के साथ जुड़ जाती है तभी एक सुंदर कला का निर्माण होता है । अनेक कालो मे अनेक विद्वानो द्वारा कला की परिभाषये की गई है जो इस प्रकार है –
अरस्तू के अनुसार कला –
कला सत्य का अनुकरण है ।
टालस्टोय के अनुसार कला –
कला भावो को क्रिया ,रेखा ,रंग ,ध्वनि या शब्द द्वारा इस प्रकार अभिव्यक्ति करती है की उसे देखने ओर सुनने वाले के मन मे वही भाव जागे।
रवीन्द्र नाथ टैगोर के अनुसार कला –
कला मे मनुष्य अपनी अभिव्यक्ति करता है ।
क्रोचे के अनुसार कला –
कला बाह्य प्रभावो की अभिव्यक्ति है ।
जयशंकर के अनुसार कला –
ईश्वर की कर्तव्य शक्ति का संकुचित रूप जो हमे बोध के लिए मिलता है ,वही कला है ।
हरबर्ट रीड के अनुसार कला –
फ्रायड के अनुसार कला –
हिगल के अनुसार कला –
अनुकरण ही कला का मूल है ।
प्लेटो के अनुसार कला –
कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है ।
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