कला के तकनीक माध्यम

  कला के तकनीक माध्यम कोन- कोन  से है 

प्रविधि –

 जिस प्रकार संगीतज्ञ को स्वर ओर कवि को शब्द तथा उनके उपयोग का ज्ञान आवश्यक है उसी प्रकार चित्रकार को अपने माध्यम  के उपयोग की विधि तथा संभावनाओ का ज्ञान भी आवश्यक है । भारतीय शिल्पशास्त्रों मे कलाकार के लिए  प्राविधिक  ज्ञान आवाश्यक बताया है तथा भित्ति वर्तिका ,वर्ण इत्यादि रचना करने की अनेक विधि बताई गई है वैसे तो चित्रकार के लिए लकड़ी के कोयले से  लेकर  सिंथेटिक रंगो तक अनेक रंजन माध्यम एवं गुहा भित्ति से लेकर मैसोनाइट  बोर्ड तक अनेक चित्रभूमि के उपयोग की आज समभावनाए उपलब्ध है तथा उनका प्रयोग भी हुआ है चित्र माध्यम की प्रमुख विधीया निम्न कही जा सकती  है  –

 चित्रण करने की विधिया –

 चित्रण माध्यम की प्रमुख विधिया 

1 शुष्क  माध्यम 

2  आद्र माध्यम 

 शुष्क माध्यम –

 शुष्क माध्यम सरल सस्ती व प्रयोग मे प्रभावशाली होती है । 

शुष्क  के माध्यम मुख्य रूप से सूखे पाउडर से बने होते है इसमे तेल पानी व दृव्य मिलाने की आवश्यकता नहीं  होती है । 

शुष्क माध्यम के दो भेद होते है – 

चूर्णित पाउडर एवं पेस्टल 

पाउडर -रंगो के पाउडर द्वारा चित्र रचना की विधि बहुत पुरानी  है । रंगोली ,सांझी ,चोक पुरना आदि इसी के नाम है प्राचीन शास्त्रो मे इस पद्धति के चित्रो को ‘ धूलि चित्र ‘ कहा जाता है ।

पेस्टल – 

ये रंग भी शुष्क रंगो की श्रेणी मे आते है क्योंकि इनके लिए किसी प्रकार के माध्यम को मिलाने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । 

 

आद्र माध्यम 

 गीले रंग आद्र  माध्यम मे आते है इसमे चित्रो के निर्माण के लिए पानी , तेल गोंद आदि का मिश्रण किया जाता है । 

इसमे टेम्परा एवं तैल रंगो को शामिल किया जाता है । 

 चित्र  बनाने की तकनीक विभिन्न  प्रकार से है – 

1  पेस्टल 

2  टेम्परा 

3 जलरंग 

4 तैलरंग 

5 भित्ति चित्रण 

6 एक्रेलिक (आधुनिक नवीन तकनीक )

 पेस्टल रंग –

पेस्टल रंग सर्वशुद्ध ओर साधारण चित्रण माध्यम है पेस्टल मे माध्यम के अभाव के कारण रंगतों का स्थायित्व बढ़ जाता है । ओर रंगत बहुत समय तक खराब नहीं होती । 

 चित्रभूमि – पेस्टल के लिए  खुदरेपन की विभिन्न श्रेणियों मे तैयार किए गए विशेष कागज बाजार मे मिलते है । इस कागज का रुआ  इस प्रकार का होना चाहिए की वह पेस्टल की बत्ती मे से रंग छुड़ा सके ओर कागज के उपर से गिरने न दे । अतः कागज का चिकनापन अथवा चिकने धब्बे बिलकुल नहीं होने चाहिए । पेस्टल के योग्य श्रेष्ठ भूमि तैयार होती है जब पेस्टल से समस्त चित्रभूमि ढक दी जाये तो चित्रभूमि का वर्ण कोई महत्व नहीं रखता परंतु यदि चित्रण स्केची हो ओर पृष्ठभूमि जंहा तंहा 

दिखाई पड़े तो उसका वर्ण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । 

तकनीक पेस्टल की तकनीक ही अन्य माध्यम की तरह  चित्रकार का व्यक्तिगत विषय है । तान के मधुर मिश्रण से लेकर मोटे -मोटे आघात तक सभी प्रभाव पेस्टल मे संभव है । वर्ण मिश्रण के लिए अंगुली श्रेष्ठ साधन है परंतु कुछ कलाकार चमड़े अथवा कागज की बनी विभिन्न  मोटाई की बत्तिया प्रयोग करते है 

सर्वप्रथम  पेस्टल रंगो का प्रयोग 20 वीं शताब्दी मे ‘ एद्गर  देगा ‘ ने किया था। 

पेस्टल रंग से बने चित्रो को स्थायी  रखने के लिए  इसे विशेष प्रकार के चोखटों  मे लगाया जाता है ओर काँच व चित्र के बीच मे खाली जगह रखनी चाहिए । 

 पेस्टल रंग को धरातल पर स्थायी करने के लिए लगाए जाने वाले घोल को ‘ फिक्सेटिव  ‘ कहते है । 

 जिससे चित्र को रगड़ व स्पर्श से बचाया जा सके । 

पेस्टल रंगो की विशेषता  इसका धूमिल प्रभाव है । 

 2 टेम्परा रंग 

  टेम्परा शब्द का अर्थ किसी वस्तु मे मजबूती या लचक प्रदान करना अर्थात टेम्परा वह पद्धति है जिसमे किसी पायस का प्रयोग किया जाता  है । 

टेम्परा प्रणाली से भित्तिचित्रों के बनाने  मे उस पर एक विशेष प्रकार की जमीन  तैयार करनी  पड़ती हाइड । उदाहरण के लिए अजंता मे  भित्ति  को खुरदरा कर उस पर गोबर ,कचरे की महीन लुगदी ,छनी हुई मिट्टी ,धान की भूसी ओर आलसी का लेप पलस्तर के रूप मे किया गया । ऐसे कई  स्तर एक के ऊपर एक करके लगाए गए की वह शीशे के समान  समतल हो गया । 

इस आधार या जमीन पर रंग लगाए गए , जो कुछ खनिज रंग थे जैसे गेरू , हीरोंजी ,रामराज , कुछ पत्थरो को पीसकर बनाए  गए है । 

 यह माध्यम पानी मे घुल जाता है पर सूखने के बाद मे यह अघुलनशील हो जाता है । 

बाद मे उस पर  टेम्परा अथवा तेल माध्यम से चित्रण किया जाता है । 

सुख जाने पर यह  पायस पारदर्शिता झिल्ली का निर्माण करता है । 

टेम्परा रंग अपारदर्शी होता है । 

प्राचीन  काल मे इसमे अंडे की ज़र्दी का प्रयोग किया जाता था     

 क्योंकि अंडा प्रकृति का सर्वश्रेष्ट पायस है , बहुत सफल भी रहा है ओर गीलिसरीन व किचित  अलसी का तेल  का मिश्रण  भी अच्छा पायस माना  जाता है । 

चित्र भूमि के  लिए खुरदरी दीवार ,लकड़ी का बोर्ड ,कागज आदि होते है ,जिस पर यह तैयार लेख सूखने के बाद दूसरे रंगो  को उसी के ऊपर लगाकर नवी प्रभाव उत्पन्न किया जाता है । 

 3 तैलरंग 

   चित्रभूमि तैल चित्रण के लिए विभिन्न प्रकार की भूमि का  प्रयोग किया जाता है जैसे -कैनवास ,काष्टफलक  मैसोनाइट बोर्ड अथवा हार्डबोर्ड ,गैसों ,भित्ति इत्यादि । परंतु इनमे से मुख्य निम्नलिखित है –

 कैनवास   बोर्ड –

 यह एक प्रकार का कैनवास ही होता है जिसे बोर्ड के ऊपर चिपका दिया जाता है यह तैल चित्रण के अभ्यास के लिए उपयुक्त होता है  । यह कई माप मे तैयार भी मिलता है  । 

 कागज – 

 यह भी  तैल चित्रण के अभ्यास मे उपयुक्त होता है । इस कागज के दानो को कैनवास की भांति बनाया जाता है  मजबूती के लिए इसके पीछे कपड़े अथवा बोर्ड को चिपकाया जा सकता है

 कैनवास –

 दीर्घकाल तक रखने वाले चित्रण के लिए इसका प्रयोग किया जाता है  यह  किसी भी इच्छुक बुनाई वाले श्रेष्ठ कपड़े पर तैयार किया जा सकता  है  कैनवास को लकड़ी के फ्रेम पर कीलो द्वारा इस प्रकार खींचकर तानदिया जाता है की उसमे सिकुड़न न रहे । कैनवास स्वंय  तैयार करने के लिए निम्न विधि  काम मे लाई जा सकती है । 

साइजिंग – तैल रंग  कपड़े के प्रत्यक्ष संपर्क मे आने से कपड़े के तन्तु खराब हो जाते है । अतः एक श्रेष्ठ कपड़े को कीसी  लकड़ी के चौखटे पर हल्का सा कसकर एक पतली सतह पानी मे घोले हुए सरेस की लगा देते है । इससे कपड़े के सूक्ष्म छिद्र भी बंद हो जाते है । 

प्राइमिंग –

भली प्रकार साइजिंग करने के बाद कैनवास पर सफेदा तारपीन तथा अलसी का तेल का मिश्रण तैयार करके किसी चौड़े ब्रुश से लगाया जाता है । इस  प्रक्रिया को प्राइमिंग कहते है । 

 हार्डबोर्ड  (मैसोनाइट बोर्ड  )-

 हार्डबोर्ड बाजार मे कई प्रकार के मिलते है – 

1 दोनों ओर से  सपाट तह वाले । 

2 एक ओर से सपाट तथा दूसरी ओर बुनावट जैसे सतह वाले 

3   मोटी बुनावट वाली सतह तथा बारीक बुनावट  वाली सतह वाले । 

 

माध्यम –

 तैल चित्रण के लिए माध्यम के रूप मे साधारण तारपीन ,अलसी का तेल तथा वार्निश का प्रयोग  होता है बाजार मे ये वस्तुए दो रूप मे प्राप्त होती है  । 

1 तारपीन       2 अलसी का तेल 

 वारनीश –

 बाजार मे कई प्रकार के वारनीश मिलते है परंतु चित्रण के लिए श्रेष्ठ कोपाल वारनीश ही उपयुक्त है ।  उपरोक्त तीनों माध्यम का  प्रयोग चित्रकार की रुचि एवं अनुभव पर निर्भर करता है परंतु विध्यार्थी  के लिए श्रेष्ठ माध्यम  इन तीनों को सम  भाग मिलाकर तैयार किया जाता है । 

4 जलरंग 

 चित्रभूमि  – जलरंग चित्रण के लिए मुख्यत कागजका प्रयोग किया जाता  है । कागज बाजार मे कई नामोर गुणो मे म्लिते है । आजकल मुख्यत हाथ का बना कागज जल रंग चित्रण के लिए प्रयुक्त होता है यह साधारणतया तीन श्रेणी मे प्राप्त होता है । 

1 चिकना 

2 मध्यम 

3 मोटा 

कागज मे पानी सोखने की प्रवृति दुर्गुण  मानी जाती है किनही कागजो को श्वेत बनाने के लिए अधिक ब्लीच कर दिया जाता है  इससे कागज के रसायनिक गुण बदल जाते है ओर रंग कागज पर लगने पर अपनी रंगत बादल देते है  कुछ चित्रकार कागज को बोर्ड पर चिपका देते है  कागज को गीला करके किनारो पर गोंद अथवा गोंद लगी पट्टी द्वारा ड्राइंग बोर्ड पर चिपका देने पर भी  कागज  कैनवास की तरह खींच जाता है । 

 कागज की सतह का खुदरापन कलाकार की रुचि अनुभव ओर कारी विशेष की आवश्यकता पर निर्भर करता है क्योंकि सतह की विभिन्न  बनावट भिन्न प्रभाव उत्पन्न करती है । 

तूलिका 

जल रंग के चित्रण के लिए ब्रश मे लचिलापन होना अत्यंत उपयुक्त रहता है । साधारणतया बारीक काम करने के लिए गोल ओर पतली तूलिका तथा बड़े स्थानो को रंगने के लिए चपटी आकृति की तूलिका उपयुक्त रहती है । जंहा तक संभव हो सर्वश्रेष्ट तूलिका ही प्रयोग करनी चाहिए 

 तकनीक 

जलरंग प्रयोग की दृष्टि से दो प्रकार का है  प्रथम घुलनशील जो प्रथम परत से सुख जाने पर द्वितया परत लगने  पर पुनः घुल जाते है  तथा दूसरे अघुलनशील जिसके द्वारा परत दर परत  चित्रण किया जात है दोनों के प्रथक -प्रथक प्रभाव तथा संभावनाये है । पारस्परिक  रूप मे जल रंग चित्रण कितकनीक मे जल रंगो की पारदर्शक परत लगाई जाती है जिसमे ‘ हाई लाइट’  के लिए धरातल को श्वेत छोड़ दिया जाता है  प्राचीन काल मे ग्वाश ,कैसीन इत्यादि  अपारदर्शक जल रंगो को प्रथक  माना जाता था  परंतु आधुनिक काल मे इन माध्यमों के लिए भी जल रंग शब्द का प्रयोग होता है । जल रंग अपने स्वरूप तथा तकनीक की दृष्टि  से भी दो श्रेणी मे बांटे जा सकते है  प्रथम पारदर्शक  ,इस श्रेणी मे ‘वाश’ ग्लेजिंग ,आला प्रायमा , स्पंजिंग ,वैराइगेंटेड वाश आदि प्रविधिया आती है तथा द्वितया अपारदर्शक ,इसके अंतर्गत स्टिप्लिंग ,स्कंबलिंग , ड्राइ  ब्रशिंग आदि प्रविधियाँ आती है । 

     

 

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