कला के तत्व ,कला के कितने भाग होते हैं? चित्रकला का कौन-सा तत्व सबसे महत्वपूर्ण है और क्यों?

 चित्रकला के तत्व

चित्रकला के तत्व कला मानव के भावो का दृश्यवान रूप है ।

कला के प्रस्तुतीकरण के लिए मानव निश्चित मापदण्डो व तत्वो का सहारा लेता है । जिसके माध्यम से मानव अपनी कलात्मक प्रस्तुति को प्रभावपूर्ण बनाता है ।

भारत के प्राचीन शास्त्रो मे कला के तत्व व नियम बताए गए है ।

आधुनिक कला मे कला तत्वो की आवश्यकता है ।

इसी के आधार पर ही कला का हम आनंद उठा पाएंगे । कला तत्वो के साथ ही हम चित्राकृति पूर्ण कर सकते है ।

चित्र मे तत्वो के समावेश से ही हमे आनंद की प्राप्ति होती है ।

चित्रकला के 6 तत्व है

1 रेखा  (line )

2 रूप  (form )

3 वर्ण  (colour )

4 तान  (tone )

5 पोत  (texture )

6 अन्तराल  (space )

 

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 1.  रेखा (line )

रेखा कला तत्वो मे सबसे  प्राचीन तत्व माना जाता है ।

रेखा रूप की विशेषता को सरलता से समझाती है किसी चित्रतल  पर कोई चिन्ह अंकित करना अंकन कहलाता है ।

परिभाषा रेखा दो बिन्दु या दो सीमाओ के बीच की दूरी होती है जो बहुत ही सूक्ष्म होती है ओर गति को दिशा निर्देश करती है ।

जब दो बिन्दु के मध्य रेखा न खिची जाने पर उनके मध्य रेखीय प्रभाव आता है । उसे  अनुभूत रेखा कहते है ।

1 औपचारिक रेखा –

यंत्रो के  माध्यम से खींची जाने वाली रेखा को औपचारिक रेखा कहते है । जैसे –

स्थापत्य कला

2 अनोपचारिक रेखा –

सीधी हाथ से खींची जाने वाली रेखा या लिपिम्य से संबन्धित रेखाए अनोपचारिक रेखा कहलाती है । जैसे –

गतिपूर्ण ,लहरदार

रेखाओ के प्रभाव के आधार पर रेखा 7 प्रकार की होती है भिन्न -भिन्न दिशा की ओर जाती रेखाओ का भिन्न -भिन्न प्रभाव होता है जिसका संबंध हमारी भावनाओ ओर संवेदनाओ से होता है ।

ये रेखाए निम्न प्रकार से है –

1 सीधी खड़ी रेखा-

लम्बवत रेखा ये रेखाये ऊंचाई की प्रतीक होती है । जैसे मंदिर ,पेड़ ,स्थापत्य की रेखाए हमारे मन मे उच्चता ,महत्वाकांशा ,दृढ़ता ,गौरव ,स्थिरता ,एवं शाश्वता का भाव जगाती है

2. सीधी पड़ी /क्षेतिज रेखाए –

ये रेखा क्षैतिज के समानान्तर पड़ी होती है । ये रेखा लम्बवत रेखा को आधार  प्रदान करती है । प्रभाव -ये रेखा मानसिक शांति , विश्राम , ,निष्क्रियता ,संतुलन ,मोन आदि के भाव जगाती है ।

3. कोणीय रेखाए –

ये रेखाए शीघ्रता से दिशा परिवर्तन करती है इन रेखाओ का प्रभाव व्याकुलता ,संघर्ष ,आघात ,बेचेनी ,असुरक्षा तथा अस्पष्टता आदि प्रतीत होता है ।

4. कर्णवत  रेखा / तिरछी रेखा –

ये रेखाए अंतराल मे आदि तिरछी खींची जाती है । मानव क्रिया करते वक्त शरीर मे कर्णवत  गति  प्राप्त करता है ।

5.  एक पूंजीय रेखा –

प्रकृति की सुंदरता ,स्वतत्न्त्रता उसका विस्तार फल -फूल की सुंदरता को इसी प्रकार की रेखाओ से दर्शाया जाता है । प्रभाव -एकता ,स्वच्छता ,प्रसार ,स्वदेश प्रेम आदि

6. वर्ताकार /सर्पाकार/चक्राकार   रेखाए –

ये रेखाए घुमावदार होती है । प्रभाव -भ्रम ,शक्ति , उत्तेजना ,गति ,पूर्णता आदि के भावो की धोतक होती है ।

7. प्रवाह रेखाए –

लयात्मक व प्रवाहपूर्ण रेखाए दिशा मे अनेक परिवर्तन के कारण मंद पड जाती है लेकिन निरंतर प्रवाह मान रहती है  प्रभाव – गति , लावण्य, तथा माधुर्य ।

रेखांकन के प्रकार –

1 स्वतंत्र रेखा –

किसी वस्तु को देखने के पश्चात मस्तिष्क पर पड़ने वाले  प्रभाव से उत्पन्न रेखांकन जो एक दूसरे से भिन्न होती है स्वतत्न्त्र रेखाकण कहलाती है ।

2. स्मृति रेखांकन –

जैसे देखि हई आकृति को उसके हूबहू उतार देते है उसे स्मृति रेखांकन कहते है ।

3. प्रति रूपात्मक रेखांकन –

जैसा देखते है वैसा ही बनाने  का प्रयत्न करना ही प्रतिरूपात्मक आकृति मे आता है ।

4. यांत्रिक रेखांकन

यंत्रो की सहायता से खींची हुई रेखा जिसका कोई कलात्मक  प्रभाव नहीं होता ।

5. सीमांत रेखांकन –

छाया व प्रकाश के प्रभाव से उत्पन्न रेखा जो प्रकृति की दें है । वे सीमांत रेखांकन कहलाती है ।

6.  सांकेतिक रेखांकन –

चित्र भूमि पर अंतराल ओर वस्तु के आयतन को जानते है  जिससे सक्रिय व सहायक अंतराल की जानकारी होती है ।

 7. प्राकृतिक रेखांकन –

प्रकृति के अवयवो का अंकन करना प्रकृति रेखांकन कहलाता है ।

8.  वस्तु रेखांकन .

वस्तु के समूह को संयोजित कर उनका रेखांकन व परिप्रेक्ष्य का अध्ययन करना वस्तु रेखांकन मे आता है ।

 

 

2.  रूप (form )

रूप वह क्षेत्र है जिसका अपना निश्चित आकार होता है । रूप का निर्माण छोटे -छोटे बिन्दुओ से होता है ।

अगर इन बिन्दुओ को क्रमानुसार एक ही दिशा मे बढ़ाया जाय तो रेखा का निर्माण होता है ।

चित्रकार चित्रभूमि पर रेखा के माध्यम से सबसे पहले रूप का निर्माण करता है , जिसे हम खाका  या स्केच खाते है

रूप की परिभाषा –

रूप वह क्षेत्र या स्थान है जिसका अपना आकार तथा वर्ण होता है अर्थात ” किसी वर्ण के क्षेत्र का रूप कहलाता है ।

form

F =first          O  = organic          R = revelation of       M=  matter

 

प्रत्येक कलाकार अपनी मौलिक सर्जन के आधार पर भिन्न -भिन्न रूपो का निर्माण करता है । रूप को दो भागो मे बांटा गया है –

 1 सम्मात्रिक रूप (symmetrical form )

यह रूप वह होता है  जो दोनों तरफ से समान होता है  ।जैसे – घन , वृत , आयात , गिलास आदि ।

2.  अस्म्मात्रिक रूप (asymmetrical form )

इस रूप मे दूसरा भाग पहले भाग से भिन्न होता है । जैसे – विषमकोन ,चतुर्भुज ,त्रिभुज ,केतली आदि ।

 

 3.  वर्ण /रंग (colour )-

चित्र के तत्वो मे रंग का सर्वाधिक  स्थान होता है । मनुष्य के जीवन मे रंग महत्वपूर्ण स्थान रखते है ।

वास्तव मे वर्ण प्रकाश का गुण होता है ।

प्रकाश की किरणों के द्वारा ही हम किसी वस्तु के रंग को पहचान सकते है ।

जब वस्तु से टकराकर प्रकाश आंखो की रेटिना पर पड़ता है तो रेटिना के पीछे  रोड्स तथा  कोन्स नामक दो ग्रंथिया चेतन हो जाती है जिसके परिनाम स्वरूप हम वस्तु को देख पाते है ।

वर्ण के गुण वर्ण के मुख्य तीन गुण है ।

1 वर्ण की रंगत  (वर्ण की प्रकृति को रंगत कहते है । )

जैसे – लालपन ,पीलापन ,नीलापन

2. वर्ण की मान – गहरा नीला ,नीला ,हल्का नीला

3.  वर्ण की सघनता – यह रंग की शुद्धता का परिचायक है जैसे – लाल ,नीला ,पीला

 

वर्ण के  भेद मुख्यता वर्ण के भेद 5 प्रकार के होते है  ।

1. प्राथमिक रंग (primary colour )

मुख्य  रंग लाल ,पीला ,नीला इन्हे अग्रगामी रंग भी कहते है ।

2. द्वितीय रंग   (secondary colour )

मिश्रित रंग हरा ,बैंगनी ,नारंगी ।इशे प्रष्टगामी रंग भी  कहते है

3. समीपवर्ती रंग  ( Analogous  colour )

एक प्राथमिक ओर एक द्वितीय रंग मिलाकर समीपवर्ती रंग प्राप्त किया जाता है । जैसे नीला ,हरा ,पीला।

4. पूरक रंग /  विरोधी (Complementary or  Opposite colour )

प्राथमिक रंगो के मिश्रण से जो रंग प्राप्त होता है वो प्राथमिक रंग के तीसरे रंग का विरोधी रंग होते है । जैसे – लाल का हरा , पीले का बैंगनी ,नीले का नारंगी ।

5. एकाँकी रंग  (Monochrome )

ये केवल एक रंगत के विभिन्न मान तथा सघनता वाली रंगतों का तालमेल एकाँकी वर्ण के अंतर्गत आता है । क्यो की एक ही रंग

रंग से बने होते है । जैसे हल्का नीला ,नीला ,गहरा नीला । वर्ण के प्रभाव भिन्न रंगो के भिन्न प्रभाव होते है जो निम्न प्रकार है रंगो को दो भागो मे बांटा गया है ।

1  उष्ण रंग  (warm colour )

लाल ,पीला ,नारंगी

2   शीतल रंग (cool colour )

नीला ,हरा , बैंगनी

 

1 लाल –

यह सर्वाधिक गहरा व आकर्षक रंग है । प्रभाव – प्रसन्नता , उत्तेजना ,क्रोध ,व संघर्ष आदि भावो का प्रतीक है ।

2  पीला

यह सर्वाधिक प्रकाश  देने वाला है । यह रंग सूर्य के प्रकाश का धोतक है । प्रभाव – प्रफुल्लता , प्रकाश ,बुद्धिमानी ,प्रसन्नता व समीपता ,का धोतक है ।

3 नीला

यह रंग विस्तार को दर्शाता है । प्रभाव – शीतलता ,आनंद ,रात्रिभाव या प्रकाश , दुख , मानसिक अवसाद आदि का धोतक है ।

4 हरा

यह रंग पीले व नीले रंग की विशेषता  लिए होता है । प्रभाव – योवन ,हरियाली ,व अमृता से जुड़ा है।  विश्राम ,सुरक्षा , मनोहरता ,विकाश ,आदि

5 नारंगी

यह रंग लाल व पीले के मिश्रण से बना है प्रभाव – वीरता ,ज्ञान

6  बैंगनी

यह रंग  लाल व नीले रंग का मिश्रण से बना है । प्रबहव – समान ,रहस्य , मृत्यु  आदि का

 

तटस्थ रंगो के प्रभाव

1 सफ़ेद – यह वर्ण सुधता ,शांति ,एकता , उज्ज्वलता ,सत्य, का प्रतीक है ।

 

4.  तान (tone )

तान की परिभाषा

तान रंगत के हल्के व गहरेपन को कहते है यह  रंगत  मे सफ़ेद तथा काले रंग के परिणाम का धोतक है ।

किसी भी वर्ण मे सफ़ेद व काले रंग की मात्रा के अंतर से उसके अनेक तान  प्राप्त किए जा सकते है । तान किसी भी चित्र मे प्रयुक्त वर्ण आयोजन की जान है । किसी भी एक वर्ण की सतह पर प्रकाश के एक समान भाव के अभाव मे भी उस वर्ण की विभिन्न तान प्रस्तुत हो जाती  है  इसके विपरीत प्रकाश के एक समान प्रभाव के होते हुए भी वस्तु के तलीय न होने पर भी उसके वर्ण के विभिन्न तान प्रस्तुत हो जाते है ।

 

तान का वर्गीकरन

तानो को तीन भागो मे बांटा गया है –

1 छाया  (Dark )

2 मध्यम प्रकाश  (Middle Tint )

3  प्रकाश   (Light )

वस्तुत तन का विभाजन काले व सफ़ेद की मात्राओ के रंग मे मिश्रण से काम किया जाता है जो रंग को हल्का व गहरा बनाती है ।

 

तान का महत्व व प्रयोग –

किसी भी चित्र के संयोजन मे कलाकार की व्यक्तिगत भावनाओ का बड़ा महत्व होता है ।

इन्हे व्यक्त करने मे चित्रकला के तत्वो का बड़ा महत्व है । क्यो की कला के प्रत्येक तत्व रूप ,रंग ,रेखा ,तान आदि विभिन्न भावनाओ को प्रकट करने की क्षमता रखते है ।

चित्रतल द्वियायमी होता है परंतु  तान के प्रयोग से इसमे त्रियायमी प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है इसमे वस्तु के वास्तविक आकार व आयतन का आभास होता है ।

तान का प्रयोग परिप्रेक्ष्य के प्रभाव को दिखाने के लिए किया जाता है  । इसमे वातावरणीय क्षयविधि की समस्या को हल किया जाता है ।

 

 

5.  पोत  (texture )

किसी चित्रतल के धरातलीय गुण ज्को पोत कहते है इसमे हम बुनावट भी कहते है । हम पोत को देख सकते है ओर छु कर भी स्पष्ट ज्ञान कर  सकते है

अतः हमार पोत से तात्पर्य है की छूने व देखने मे अनेक प्रकार की अनुभूति होती है ।

जैसे  – यदि  पत्थर अगर ठोस है  तो उसे ठोस ही दिखाया जाएगा ना की मास के टुकड़े की तरह ।

 

पोत तीन प्रकार के होते है

1 प्राप्त पोत

2 अनुकृत  पोत

3 सृजित पोत

 

1 प्राप्त पोत  (Found ) –

प्राप्त पोत वह जो प्रकृति तथा मानव निर्मित वस्तु मे होता है । प्राप्त पोत शीला ,भित्ति ,कपड़ा तथा ताड्पत्र आदि मे स्वत ही आया हुआ दिखाई देता है ।

2 अनुकृत  पोत (Copied )-

प्रकृति प्रदत्त पोत को देखकर या अनुकरण करके निर्मित किए जाने वाले पोत को अनुकृत पोत कहते है ।

इस प्रकार की पोत के माध्यम से द्वियायमी धरातल पर त्रियायमी प्रभाव उत्पन्न किए जा सकते है ।

कंपनी शैली के चित्रो  मे अनुकृत पोत का उदाहरण देखने को मिलता है ।

 

3 सृजित पोत /कृत्रिम पोत  (Created /Artificial ) –

सृजित पोत यंत्रो तथा साधनो की सहसेयता सृजित किया जाता है इसे कृत्रिम पोत भी कह सकते है । ऐसे पोत चित्र को क्रियाशील करने के लिए प्रयोग मे लाये जाते है ।

 

6.  अंतराल(space )

चित्रकार जिस स्थान या भूमि पर अंकन करता है वह स्पष्ट द्वियायमी होता है ओर इसे ही अंतराल कहते है ।

अतः हम कह सकते है । क चित्रकार का वह क्षेत्र जिस पर वह रूप निर्माण करता है ।

प्राचीन भारतीय ग्रंथो मे अंतराल को अलग -अलग नाम से सम्बोधन किया है ।

1 विष्णुधर्मोत्तर पुराण मे   – स्थान कहा जाता है

2 समरांगण  सूत्रधार मे – भूमिबंधन कहा जाता है ।

3 अभिलाषितार्थ चिंतामणि मे – स्थान निरूपण कहा जाता है

 

 

अंतराल का महत्व

सामान्य अंतराल  दो रूपाकारों के मध्य रिक्त स्थान का बोद्ध करवाता है ओर कला के तत्व अंतराल से किसी न किसी प्रकार से संबन्धित होते है ।

अंतराल मे सभी प्रकार के रूपो को संयोजित किया जा सकता  है ।

परंतु कलाकार तालमेल बिठाने व एकरसतता से बचने के लिए चित्रतल  का विभाजन करता है ।

अंतराल  ना केवल रूप  तत्वो को संयोजित करने का स्थान है अपितु चित्रतल पर भिन्न – भिन्न प्रभावों को  उद्वेलित  करने मे पूर्णतः सहायक होता है ।

अंतराल का विभाजन दो प्रकार का होता है ।

समविभाजन – चित्र  भूमि को रेखा अथवा रूपाकारों के माध्यम से इस प्रकार विभाजित करना ही चारो तरफ  से समान रूप से विभाजित हो जाए अथवा रेखा रूप ओर तान इस प्रकार से एक प्रकार से एक समान होना चाहिए ।

प्राचीन भारतीय शास्त्रो व मध्यकालीन यूरोपीय चित्रकार (लियोनार्दो ,माइकल एंजिलों ) ने सम विभाजन का प्रयोग अपने चित्रो मे किया है ।

असम विभाजन – इसमे चित्रकार तल का विभाजन अपनी इच्छा  अनुसार करता है ओर इसे ही असम विभाजन  कहते है । ओर इसी के आधार पर चित्र को गतिशील , आकर्षक ओर तनावपूर्ण बनाया जा सकता है ।

ओर आधुनिक काल मे अधिकांशत चित्रकार इसी विभाजन का सहारा लेते है ।

नोट – स्वर्णिम विभाजन सर्वश्रेष्ठ विभाजन माना  जाता  है । इस सिद्धांत को युकिल्ड ने दिया था ।

 

अंतराल विभाजन का  वर्गीकरन 2 प्रकार से किया जा सकता है ।

1 सक्रिय  अंतराल    2   सहायक अंतराल

सक्रिय आकृति /प्रत्यक्ष आकृति – यह चित्रतल की मुख्य आकृति होती है या मुख्य स्थान होता है इसे ही सक्रिय आकृति या प्रत्यक्ष  आकृति कहते है ।

सहायक आकृति /अप्रत्यक्ष आकृति –  यह आकृति सक्रिय आकृति के पास खाली स्थान पर बनाई जाती है उसे सहायक या अप्रत्यक्ष आकृति

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