राजस्थानी शैली
आइये आज हम जानेगे की राजस्थानी शैली का विकास कैसे हुआ उसका नामकरण एवं उसकी विशेषताए
राजस्थानी शैली 1550 ई0 से 1900 ई0 तक (16 वीं शती से 18 वीं शती तक )
सर्वप्रथम राजस्थान शब्द का प्रयोग कर्नल टाड (1829 ) मे annals and antiquities of rajesthan पुस्तक मे किया था
राजस्थानी चित्रकला शैली का प्रारम्भ 15 वीं से 16 वीं शताब्दी के मध्य माना जाता है ।
सम्पूर्ण विश्व मे भारत का राज्य राजस्थान अपनी वीरता , शौर्य ,बलिदान एवं मात्रभूमि पर अपने प्राण न्योछावर करने वाले वीरों के कारण प्रसिद्ध था ।
हमारे देश मे अंग्रेजो के आगमन से पहले राजस्थान का यह वर्तमान नाम प्रचलित नही था विभिन्न नामो से जान जाता था , उत्तरी भाग जांगल प्रदेश ,सपालदक्ष , कुरू देश , मत्स्य देश आदि ।
जब अंग्रेज़ो के संपर्क मे आया तब राजपूताना कहलाता था ।
नवम्बर 1956 मे भारत सरकार के द्वारा राजस्थान एकीकरण मे राजस्थान नाम स्वीकार कर लिया गया ।
पूर्व पीठिका – अप्भृंश शैली
राजस्थानी चित्रकला की जानकारी 7 वीं शताब्दी से प्राप्त होती है । मारवाड़ शासक राजाशील के कारण राज कलाकार श्रन्धर के बारे मे जानकारी मिलती है ( श्रगंधर यक्ष शैली के प्रमुख प्राचार्य थे । )
सर्वप्रथम आनन्द कुमार स्वामी ने अपने ग्रंथ राजपूत पेंटिंग मे राजस्थान की चित्रकला के स्वरूप को 1916 ई0 मे राजस्थान शैली का सबसे पहला वैज्ञानीक विभाजन किया ।
इनके अनुसार राजपूत चित्रकला का विषय राजपूताना ओर पंजाब की पहाड़ी रियासतो मे प्रचलित थी ।
16वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक अपभृंश की मलिनता विरोहीत हो चुकी थी , तथा उसके स्थान पर राजस्थानी चित्र शैली का उद्भव हुआ ।
प्रारम्भ मे राजस्थानी चित्रकला पर जैन ,गुजरात ओर अपभृंश शैली का प्रभाव रहा किन्तु 17 वीं शताब्दी से मुगल साम्राज्य के प्रसार राजपूताने के साथ पढ़ते राजनीतिक व वैवाहिक संबंधो के फलस्वरूप इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव बढ्ने लगा ।
कार्ल खांडाल्वाला ने 17 वीं ओर 18वीं शताब्दी के प्रारम्भिक काल राजस्थानी शैली का स्वर्णकाल मानते है ।
राजस्थान की चित्रकला मे अजंता व मुगल शैली का सम्मिश्रण पाया जाता है ।
अंग्रेज़ इसे राजपूताना बोलते थे रायथान, रायवाड़ा भी इसके नाम थे।
अपभृंश शैली को जैन शैली भी कहते है
अपभृंश शैली को गुजराती शैली भी कहा जाता है । ओर पश्चिमी भारतीय शैली भी कहते है
अपभृंश शैली की विशेषताए बदलकर राजस्थानी शैली बन गई ।
अपभृंश शैली मे सवा चश्म चेहरे बनते थे जब एकचश्म चेहरे बनने लगे तो राजस्थानी शैली की शुरुआत होने लगी
अपभृंश शैली मे कोणीय रेखाये बनती थी जब ये रेखाए कोणीय से गोल बनने लगी तो ये राजस्थानी शैली हो गई ।
अपभृंश शैली के चित्र कागज पर बनते थे फिर वसली पर अंकन होने लगे थे ।
अपभृंश शैली पर मुग़ल शैली का भी प्रभाव पड़ा ।
सबसे पहले राजस्थानी शैली का वैज्ञानिक विभाजन आनन्द कुमार स्वामी ने अपनी पुस्तक राजपूत पेंटिंग मे 1916 ई0मे किया था।
इन्होने उत्तर पश्चिम की कला को दो भागो मे विभाजित किया था
1 मुगल शैली
2 राजपूत शैली
राजपूत शैली मे दो शैली बनी ।
1 राजस्थानी शैली
2 पहाड़ी शैली
राजस्थानी शैली का नामकरण
आनन्द कुमार स्वामी ,ओ .सी गांगुली , ई0वी0 हैवल ,वासिल ग्रे ने राजपूत शैली कहा था ।
एन . सी मेहता ने हिन्दू शैली कहा था ।
रायकृष्णदास ने राजस्थानी शैली कहा है ।
राजस्थानी शैली का वर्गिकरण
राजस्थानी शैली मे चार शैली
1 मेवाड़ शैली मे (सिसोदिया वंश ) था ।
2 मारवाड़ शैली मे (राठौर वंश ) था ।
3 हाड़ौती शैली मे ( हाड़ा वंश) था ।
4 ढूँढार शैली मे ( कछवाहा वंश ) था ।
1 मेवाड़ शैली 2 मारवाड़ शैली 3 हाड़ौती शैली 4 ढूँढार शैली |
1 उदयपुर जोधपुर बूंदी जयपुर |
2 नाथद्वार बीकानेर कोटा अलवर |
3 देवगढ़ नागौर झालावाड़ उनियारा |
4 चित्तौड़ किशन शेखावटी |
5 चावंड अजमेर |
6 प्रतापगढ़ |
7 शाहबाद |
राजस्थानी शैली की विशेषताए –
रेखा – बारीक ,कम रेखा का प्रयोग
धरातल – वसली
शैली – शुद्ध भारतीय
एक चश्म चेहरे है ।
रंग – चटकीले रंगो की प्रधानता , लाल नीले , पीले ,हरे ,सफ़ेद की अधिकता ओर मृग , मछ्ली ,खंजन जैसी आंखे
भक्त ओर धार्मिक ग्रंथ – रामायण , महाभारत , गीत गोविंद , भगवतगीता , बिहारी सतसई , दुर्गसप्तसती आदि ग्रंथो का चित्रण राजस्थानी शैली मे हुआ है ।
प्राकृतिक सौंदर्य – नायक के साथ प्राकृतिक चित्रण भी कृष्णलीला संबन्धित चित्रो मे पशुओ को भी देवता की भावना से युक्त दर्शाया गया है ।
रस – ऋतुओ के अनुरूप राजा रागनियों तथा बारहमासा आदि के चित्रो पर विशेष महत्व दिया गया ।
राग -रागनियों का मुख्य रू से अंकन राजस्थानी शैली मे हुआ है ।
बारहमासा का मुख्य रूप से अंकन पहाड़ी शैली मे हुआ हैं ।
क्षितिज रेखा सदैव ऊपर की ओर बनाई गई है ।
शृंगारिक चित्रकला राजस्थानी शैली को श्रगारिक चित्रकला भी कहा जाता है ।